Wednesday, June 3, 2009

मोहबत


मोहब्त तो हो जाती है पर उस पर एतबार क्यों नहीं करता है दिल .........क्यों अपनी मोहब्त पर एतबार नहीं करता है ये दिल .............क्यों दूर जा कर दिलो में दूरिया आ जाती है.........क्यों अपनी ही मोहब्त पे यकीन नहीं रहता......क्यों दिलो में प्यार की जगह शक लेलेती है जगह .......क्यों उस मोहब्त से एतबार खत्म हो जाता है जिस पर सब कुछ कुर्बान कर देते है ये दिल .......जो सब से ज्यादा प्यारा होता है इस दुनिया की भीढ़ में ,वो ही अचानक से क्यों जुदा सा हो जाता है इस दिल से , क्यों हम अपनी मोहब्त पर एतबार नहीं करते, मोहब्त तो कर लेते है पर क्यों उस पर एतबार नहीं करते ........
जिस की चाहत पर मरता है ये दिल ,क्यों वो जुदा हो जाता है ,केसे दुरिया जीने को मजबूर कर देती है क्यों रूह में बसने वाले दिल से जुदा हो जाते है ...........मोहबत तो कर लेते है पर एतबार क्यों नहीं कर पाते है....... ये दिल क्यों एतबार नही करता अपनी मोहबत पर ....................क्यों????????

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